शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

हाय! ये कैसी ज़िन्दगी !

हाय ! ये कैसी ज़िन्दगी

*ज़िन्दगी के *हर मोड़ पर सपने आये छोड़ कर ,
वे सपने जो रुलाते थे , हँसाते थे कभी सच तो कभी झूठ दिखाते थे

कभी जिंदगी के किनारे मिले तो कभी कब्र के किनारे मिले
अब जिंदगी लगे उठती गिरती सी लहर , न जाने ये लादे है कैसा कहर

लोगो को सुनता था सुनाता , समझता था समझाता था ,
पर खुद को न समझता हूँ न समझ पता हूँ

न हँसता हूँ न रो पता हूँ ,
न जगता हूँ न सो पता हूँ

न मिलन है न जुदाई है ,
न जाने ये कैसी घड़ी आई है

न पास हूँ न दूर हूँ,
न जाने मैं हूँ कहाँ

न धूप है न छाया है
न जाने ये कैसी घटा की माया है

काश ये कोई अभिनय होता
लेकिन न ये कोई अभिनय है न नाटकबाजी

अब ज़िन्दगी से ऐसी ही कर ली मैंने सौदेबाजी
हाय ये ज़िन्दगी , लगे अब बहता पानी

शायद यही है ज़िन्दगी का कहर
लादे हुए इसे चला इस डगर तो कभी उस डगर

ए खुदा ! माना की कर दी मैंने कोई खता
पर न दे तू मुझे इतनी बड़ी सजा
अब तो ज़िन्दगी से कर दे जुदा . * ***

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